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Sunday, 5 April 2020

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी (पूरी कविता )





सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार
नकली युद्ध व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़

महाराष्टर कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में
ब्याह हुआ रानी बन आयी लक्ष्मीबाई झांसी में
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छायी झांसी में
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आयी झांसी में

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छायी
किंतु कालगति चुपके चुपके काली घटा घेर लायी
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भायी
रानी विधवा हुई, हाय विधि को भी नहीं दया आयी

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक समानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हर्षाया
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झांसी हुई बिरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट फिरंगी की माया
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों बात
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात
उदैपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी रोयीं रनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार
नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान
बहिन छबीली ने रण चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी
यह स्वतंत्रता की चिन्गारी अंतरतम से आई थी
झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

रानी बढ़ी कालपी आयी, कर सौ मील निरंतर पार
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खायी रानी से हार
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

विजय मिली पर अंग्रेज़ों की, फिर सेना घिर आई थी
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय घिरी अब रानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार
घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीरगति पानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी


रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।




......कावित्री ...सुभद्रा कुमारी चौहान जी .
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        "मेरी पसंदीदा कवितातायें"

Saturday, 4 April 2020

सबका अपना समर्पण


सरफरोशी की तमन्ना कविता की रचना किस प्रकार हुई थी


सरफरोशी की तमन्ना कविता की रचना किस प्रकार हुई थी .आप भी जानिए ... 
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एक रोज का वाकया है अशफाक आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुर में बिस्मिल के पास किसी काम से गये।
संयोग से उस समय अशफाक जिगर मुरादाबादी की यह गजल गुनगुना रहे थे-

"कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है।
 जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।"

बिस्मिल यह शेर सुनकर मुस्करा दिये तो अशफाक ने पूछ ही लिया-
"क्यों राम भाई !  मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया क्या?"
इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया- "नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया ! यह बात नहीं। 
मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगर
उन्होंने मिर्ज़ा गालिब की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडा तीर मार लिया।
कोई नयी रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता।" अशफाक को बिस्मिल की यह बात जँची नहीं; 
उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा- "तो राम भाई !
अब आप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और मिर्ज़ा गालिब से भी परले दर्जे की है।"
उसी वक्त पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने ये शेर कहा--

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
 देखना है जोर कितना बाजु-कातिल में है?"

यह सुनते ही अशफाक उछल पडे और बिस्मिल को गले लगा के बोले-
"राम भाई! मान गये आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।"
संक्षेप में सरफरोशी की तमन्ना कविता की रचना की पृष्ठभूमि का यही वास्तविक इतिहास है।

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सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है

रहबरे-राहे-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए मंजिल में है ।
यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है ?

ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर,
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली अगर वतन मुश्क़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हाथ, जिन में है जूनून, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न,
जाँ हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये कदम.
ज़िंदगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमे न हो ख़ून-ए-जुनून
क्या लड़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में

अधूरी कड़ियाँ ...................

चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,
देखना है ये तमाशा कौन सी मंजिल में है ?

कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो !
ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है !

साहिले-मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा !
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है !

दूर हो अब हिन्द से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद ,
अब यही हसरत यही अरमाँ हमारे दिल में है !

बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना ,
'बिस्मिल' अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है !

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में
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Friday, 3 April 2020

इंकलाब जिंदाबाद '' सिर्फ नारा नहीं है ''



इंकलाब जिंदाबाद '' सिर्फ नारा नहीं है ''

modern रिव्यू के संपादक भी रामानंद चटोपाध्याय ने अपनी एक संपादकीय टिपणी में भगत सिंह के नारे '' इंकलाब जिंदाबाद ''
को खून खराबे और अराजकता का प्रतिक बताया भगत सिंह ने 3 दिसंबर 1929  को अपनी और अपने साथी बटुकेश्वर दत्त की
तरह से श्री चटोपाध्याय को पात्र लिखा |

श्री संपादक जी ,

' 'modern  रिव्यू ' '

आपने अपने सम्पादित पात्र के दिसंबर 1929 क अंक में एक टिप्पणी ''इंकलाब जिंदाबाद '' के शीर्षक से लिखी है और एस नारे को निरर्थक ठेराने की चेष्टा की है आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशस्वी संपादक की रचना में दोष निकलना तथा उसका प्रतिवाद
करना , जिसे प्रतेयक भारतीय सम्मान की द्रिष्टी से देखता है , हमारे लिए एक बड़ी धर्ष्टता होगी | तो भी एस प्रशन का उत्तर देना और यह बताना हम अपना दायित्व समझते है की एस नारे से हमारा क्या अभिप्राय है

यह आवश्यक है , क्यूंकि में इस नारे को सब लोगो तक पहुँचाने का कार्य हमारे हिस्से में आया है ,इस नारे की रचना हमने नहीं की है यही नारा रूस के क्रांतिकारी आन्दोलन में प्रयोग किया गया है  प्रसिद्ध समाजवादी लेखक 'अप्टन सिक्लेयर 'ने अपने उपन्यासों ''वोस्टन'' और आइलमें यही नारा कुछ अराजकता वादी क्रांतिकारी पत्रों के मुख से प्रयोग कराया है ,इसका अर्थ जरी रहें और कोई भी व्यवस्था अल्प समय के लिए भी स्थाई न रह सके ,दुसरे शब्दों में देश और समाज में अराजकता फेली  रहें |

दीर्घकाल में प्रयोग में आने के कारन इस नारे को एक ऐसे विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है ,जो संभव है की भाषा के नियमो एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्कसम्मत रूप में सिद्ध हो पाए ,परन्तु इसके साथ ही नारे से उन विचारों को प्रथक नहीं किया जा सकता ,जो उसके साथ जुड़े हुए है ऐसे समस्त नारे एक ऐसे स्वीक्रत अर्थ के घोतक है ,जो एक सीमा तक उनमे उत्पन्न हो गए है तथा एक सीमा तक उनमे निहित है

उदहारण  के लिए हम ''यतीन्द्र नाथ जिंदाबाद '' का नारा लगते है   इससे हमारा तात्पर्य यह होता ही की उनके जीवन के महँ कार्यों
आदर्शों तथा उस अथक उत्साह को सदा सदा के लिए बनाये रखें ,इस महानतम बलिदान को उस आदर्श  के लिए अकथनीय
कष्ट झेलने एवं असीम बलिदान करने की प्रेरणा दी यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है की हम भी अपने
आदर्शो के लिए ऐसे ही अथक उत्साह को अपनाये यही वह भावना है ,जिसकी हम प्रशंसा करते हैं इसी प्रकार
हमे ''इन्कलाब ''शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिए |
इस शब्द का उचित एवं अनुचित प्रयोग करने वाले लोगो के हितो के अधर पर इसके साथ विभिन्न अर्थ एवं विभिन्न
विशेस्तायें जोड़ी जाती है , क्रांतिकारियों  की द्रष्टि में यह पवित्र वाक्य है ,हमने इस बात को ट्रिब्यूनल के सम्मुख
अपने वक्तव्य में स्पष्ट करने का
प्रयास किया था |

इस वक्तव्य में हमने कहा था की क्रांति (इन्कलाब) का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आन्दोलन नहीं होता |
बम और पिस्तौल कभी कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते है इसमे भी संदेह नहीं है की आन्दोलन में
कभी कभी बम एवं,पिस्तौल एक महत्पूर्ण साधन सिद्ध हो सकते है ,परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रांति
के पर्यायवाची नहीं हो जाते ,विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता ,यधपि यह हो सकता है की विद्रोह का अंतिम परिणाम क्रांति हो |

प्रगति की आकांशा
इस वाक्य में क्रांति शब्द का अर्थ '' प्रगति  के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांशा है लोग साधारणतया जीवन की परंपरागत दशाओं के साथ चिपक जाते है और परिवर्तन के विचार मात्र से ही कपने लगते है यही एक अकर्मण्यता की भावना है ,जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है दुसरे शब्दों में कहा जा सकता है की अकर्मण्यताका वातावरण निर्माण हो जाता है और रुढ़िवादी शक्तियां मानव -समाज को कुमार्ग पर ले जाती है ये परिस्तिथियाँ मानव समाज की उन्नत्ति में गति रोध का कारण बन जाती है

क्रांति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा की स्थायीं तोर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए ,जिससे की रुढ़िवादी शक्तियां मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संघठित न हो सके यह आवशयक है की पुरानी व्यवस्था सदेव रहे और वह नै व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहें,जिससे की एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके यह हमारा वह अभिप्राय जिसको ह्रदय में रखकर हम इन्कलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद करते है

भवदीय ---
भगत सिंह , बटुकेश्वर दत्त


Wednesday, 1 April 2020

"इतने सालों के प्यार में ।


"इतने सालों के प्यार में ।
खट्टी मिट्ठी तकरार में ।
"
कभी तुम रूठे कभी में रूठी ।
इस प्यारे घर संसार में ।

"
जीवन भर यूँ ही साथ रहे।
प्यार भरी इन बातों से
"
दो फूल खिले है आँगन में।
तेरे मेरे जज़्बातों से।

"
में थोड़ी चंचल 'अल्हड़ सी।
जिसको तुमने संभाला है
"
मेरा कुछ खुद से पहले।
तुमको समर्पण हर निवाला है।

"
मेरी हर रातों का तू ही तो उजाला है।
बिन कहे सब सुन लेता,तेरा प्यार भी निराला है।

*************
राजेश कुमार "आतिश"**************

Tuesday, 31 March 2020

है कोई


'' दर्द ऐ दिल को छुपाता हैं कोई  

किसी की याद में, ज़िन्दगी बिताता हैं कोई  

''कहता हैं पागलपन जिसे ज़माना 

मोहब्बत उसे बताता हैं कोई  

 

''हाल ऐ दिल रो के दिखता हैं कोई  

दर्द के अहसास से ही बिखर जाता हैं कोई  

''जिस ज़माने को समझ नहीं सका ज़माना

उसे हाल ऐ दिल क्या बताता हैं कोई  

 

''कभी खुलकर मिलने से घबराता हैं कोई।  

कभी खुद से ही शर्माता है कोई  

''डरता हैं कोई कहने से दिल की बात 

कहीं खुद को खुद से ही छुपाता हैं कोई  

 

''कहीं मोहब्बत के नाम से ही इतराता हैं कोई।  

कभी निगाहों ही निगाहों ,में बस जाता हैं कोई  

''चाहता है ,हर पल जिसे दिल  अपना 

 उन पलो को खुशगवार बनता है कोई  

 

''राहो में पलके, किसी की बिछाता है कोई।  

चुपके से दिल में ,समाता हैं कोई  

''हर आहाट पर जिनकी धडकता हो दिल

उस ज़िन्दगी को मुकम्मल बनता हैं कोई  

 

''मोहब्बत का क़र्ज़ कहाँ उतार पाता हैं कोई  

कहीं अपनों से ही घबराता है कोई  

''ढूंढती रहती हैं नज़रे ,जिसको यहाँ

वो दिल में ही कहीं मिल जाता हैं कोई

 

*************राजेश कुमार "आतिश’’*************




 






Monday, 16 March 2020

बालकनी

'' हम सभी के जीवन में एक ना एक बार यह अहसास ज़रूर आया होगा,
वो चाहे हमारे घर की बालकनी हो या होस्टल..की
उसी एहसास को बयां करती यह पंक्तियाँ ,उम्मीद है आपको पसंद आएँगी
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''में जनता हूँ वो जगह जहाँ तू रहती थी 

जब मेरे घर की बालकनी तेरी बालकनी से कुछ कहती थी 

''किसी खआब की तरहा जब तुम उस घर में रहने आई थी 

तेरी हंसी झलक मेने उस बालकनी में पाई थी 

''वो बालो को झटक कर जब तुम सुखाती थी 

गिरते बालो को अपने चेहरे से हटती थी 

''एक हवा के झोंखे से तेरे बाल बिखर जाते थे 

तेरी खिलती हंसी को जुल्फों के झरोखों से देख पाते थे 

''किसी सुहानी शाम की तरहा जब तुम बालकनी में आती थी 

मेरी बालकनी भी मुझे तेरे होने का अहसास कराती थी 

''में झट उठ खड़ा हो तैयार जाता था 

तेरा दीदार करने को मेरा दिल मचल जाता था 

''दिन भर तेरी याद में यु ही काट लेते थे 

निकलेगा चाँद मेरा,बालकनी में' इस बात से दिल थाम लेते थे

''उसको अपना बनाने के लिए ,मुझको दूर जाना था 

हाथ मांगने के लिए उसका ,कुछ कर के दिखाना था

''कुछ सालो बाद में लौट के फिर आया था 

अपनी उस बालकनी का दरवाज़ा मेने आज खुलवाया था 

''गुमसुम चुपचाप सी मेरी बालकनी आज शांत थी 

तेरी बालकनी भी लगता हैं जैसे मुझसे अनजान थी 

''अपनी ही बालकनी में जैसे में आज मेहमान था 

वो दिखी नहीं कहीं में ये सोच के हैरान था 

''एक अजीब सी ख़ामोशी का एहसास मन में आया था 

कुछ हो गया है शायद जो 'वक़्त के पन्नो ने मुझसे छुपाया था 

''तेरी बालकनी मुझे तेरा हाल ए दिल सुना गई 

जीना हैं अब अकेले ये मुझको बता गई 

''एक डर था जो मन में वो सच हो गया 

अपनी ही बालकनी में आज तन्हा हो गया 

''लगता हैं जैसे 'समय के बदलो में हैं चाँद मेरा खो गया 

देखते थे जिसे रोज़ बालकनी में वो अब किसी और का हो गया 

''वो अपनी बालकनी से खड़े होकर तुझे देखता था 

तू नहीं होती थी तो तेरी बालकनी से कुछ कहता था

''अब उस बालकनी के दरवाज़े अक्सर बंद रहतें थे 

जहाँ कभी धडकते दिल आपस में कुछ कहते थे 

''में जानता हूँ वो जगह जहाँ तू अब रहती हैं 

पर मेरे घर की बालकनी अब कुछ नहीं कहती हैं 

*************राजेश कुमार "आतिश"**************





Tuesday, 14 January 2020

‘’ काश कहीं इंसान मिले।


यह पंक्तिया उस इंसान की कल्पना हैं जो कभी अफगानिस्तान ,ईराक ,इजिप्ट सीरिया
जैसे देशो में घुमा था और आज वहां की खूबसूरती की जगह उसे सिर्फ बर्बाद शहर खण्डार
इमारते ,लुटती ,पिटती ,इंसानियत लाशो से पटे कब्रिस्तान ही नज़र आये तब उसके
मन से जो निकला वो कलम बद्ध यहाँ प्रस्तुत हैं ===================================================
'' मज़हब की इस दुनिया में , काश कहीं इंसान मिले। इंसानो का क़त्ल करते मुझको , बस कई हैवान मिले। ''दोजख करके इस जन्नत को किस जन्नत की शान मिले। जाने किस जन्नत की खातिर , होते सब कुर्बान मिले।
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'' गैर मज़हबी को क़त्ल करने के क्यों यहाँ फरमान मिले। हर थोड़ी दुरी पर मुझको , बस यहाँ कब्रिस्तान मिले ' ''अपनों की लाशें दफ़न करते ,कई लोग अंजान मिले। ज़हन में जिनके उठते कई , सवाल परेशान मिले।
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''काश किसी के दिल में मुझको , थोड़ा सा ईमान मिले। लोगो की इस भीड़ में ............क्यों सब बेईमान मिले ''उस रब के रहबर मैं उठती , कोई सच्ची आज़ान मिले। दिल में सिर्फ चाहत लिए खड़ा , हर शख्स निगेहबान मिले।
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'' खूबसूरत से शहर ये सारे क्यूँ , मुझको अब वीरान मिले। थी कभी यहाँ भी रंगत........जिसके मुझको निशान मिले। '' ''हैं चलते फिरते लोग यहाँ 'पर मुझको सब बेज़ान मिले। बम , बन्दुक , बारूद से हटकर , कोई प्यारा सा सामान मिले।
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''ऐसे कर्मो से जग में .................तुझको कहाँ आन मिले। नेकी की राह पे चल ..............जहाँ सच्ची पहचान मिले। ''रब की इस दुनिया में कहीं , सच्चे दिलो की खान मिले। इस धरती पर मुझको कहीं तो ......ऐसे मेहरबान मिले ।
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''हर मोड़ पे सबको एक दूसरे का साथ और सम्मान मिले। प्रेम अहिंसा और शांति के ,दिल में जिनके अरमान मिले। ''इस मुश्किल सफर में मुझको , कोई राह आसान मिले। रहें सुकून से इन्सान जहाँ , ..........कोई ऐसा माकान मिले।
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''सरहदो में न उलझा हुआ कहीं खुला आसमान मिले। इस जहाँ में मुझको कहीं .............ऐसा जहान मिले। ''सुन मेरे जज़्बातों से होते , कई लोग हैरान मिले। कौन जाने किसी दिन पढता कोई मेरा यह दीवान मिले।

       *************राजेश कुमार "आतिश"**************

इमानदार भ्रस्ट नेता की सलाह एक राष्टवादी व्यक्ति को ....!!


" आज कल कुछ दोस्त हमारे हमसे कतराने लगे है
  वो देश भक्ति का मतलब हमको ही समझाने लगे है ,

" इस कलयुग में जहाँ अपनों ने अपनों का साथ छोड़ा है
  तुम गेरों के लिए आवाज़ उठाते हो ,
  छोड़ो ये राष्ट्र भक्ति और स्वदेशी का नारा,
  क्यूँ इसमे अपनी ज़िन्दगी खपाते हो

" आओ तुम्हे में नया हुनर सिखाता हूँ ,गेरों को तो छोड़ो
  अपनों को लुटने का मन्त्र बताता हूँ ,
  ना लोक तंत्र ,ना प्रजातंत्र ,चुनाव तंत्र को सिख के आगे बढ़ो ,
  और सबसे पहला कदम ही देश के स्वाभिमान पर धरो |

" देखो चुनाव में लोगो को एक दूसरे के खिलाफ भड़काना होता है
  और देना गरीबी हटाने के आश्वासन का बहाना होता है

" इस तरह गोलमाल तरीको से तुम भी चुनाव जीत जाओगे |
  फिर अपनी ही पार्टी में ऊँचे पद के लिए शर्त लगाओगे ,

" पद पर बैठते ही तुम भी कुछ नीतिया ,कुछ प्रस्ताव,
  और कुछ योजनाये लागू करना ,
  और उन्ही पैसों से तुम अपने विदेशी खाते,घर ,और तिजोरियां भरना |

" इस तरह तुम्हे भी बंगले में रहना और मंहगी कारो में घूमना भाने लगेगा |
  और तुम्हारा भी मन गेरों को तो क्या अपनों को सताने में लगेगा

" तब तुम भी बहुत जल्द ये भाई चारा भूल जाओगे ,
  और रोटी ,पाव तो क्या पशु चारा भी खा जाओगे ,

" इस तरह तुम पूर्णत:इमानदार भ्र्स्ताचारी बन जाओगे |
  और तब जाके तुम असली नेता कहलाओगे
  क्यों की एक नेता ही पूर्ण और  निष्पक्ष रूप से,
  और इमानदार तरीको से भ्रस्टाचार करता है |
  और इस तरह वो अपनी पूरी ईमानदारी का सबूत
  हर विभाग , दफ्तर और कार्यालय में धरता है |
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*************राजेश कुमार "आतिश"**************

Sunday, 12 January 2020

''ऐ वतन ऐ वतन हम को तेरी कसम '' तुझे बेच के ही पूरा अब दम लेंगे हम |

''नोचते भी गए ,लुटते भी गए देश के नेता सिर्फ यही जाने ,
 जीना तो उसी का जीना है जो लूटना अपने वतन को जाने "
''ऐ वतन ऐ वतन हम को तेरी कसम  |
 तुझे बेच के ही पूरा अब दम लेंगे हम   |
 मात्रभूमि क्या चीज़ है विदेशियों के कदमो में हम ,
 इस देश के स्वाभिमान को चढ़ा जायेंगे
"ऐ वतन ऐ वतन ........

''कोई अमरीका से ,कोई ऑस्ट्रेलिया से ,कोई चाइना से है कोई है ब्रिटेन से ,
 विदेशी कम्पनियो को फिर से बुला बुला के लाये है हम
"हर इक राष्ट्र से दुनिया के हर इक कोनो से ,
 हर इक राष्ट्र से दुनिया के हर इक कोनो से ........
 पार्टी कोई भी सही पर धर्म (पैसा) एक है |
 घोटालो पे घोटाले करते जायेंगे हम |
"ऐ वतन ऐ वतन ........

''हम रहें न रहें इसका कुछ गम नहीं ,
 इस देश को तो पूरा नोंच खायेंगे हम |
"हमारी पीढियां ऐश से जियेंगी तो क्या
 माँ भारती को पूरा लहू लुहान कर जायेंगे हम |
 माँ भारती को पूरा लहू लुहान कर जायेंगे हम.............
 बेच के विदेशियों के हाथो में इस देश को
 देखना फिर से गुलाम हम बना जायेंगे |
"ऐ वतन ऐ वतन ........

"तेरी जानिब उठी जो सरफरोशी की लहर ,
 उस लहर को मिटाते ही जायेंगे हम
"मेरे विदेशी खातो पे जो रखी तुने कहर की नज़र ,
 उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम
 उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम ...........
 जो भी पद आएगा , अब सामने
 उस पद की गरिमा को भी हम मिटा जायेंगे |
"ऐ वतन ऐ वतन ........

"चाहे गालियाँ दो,या मुहं पे थप्पड़ जड़ो ,
 देश को बेचने अब हम चल दिए
 बहुमत दिया था लोगो ने जिस हाथ से ,
 उन्हें विदेशी बेड़ियों में जकड के हम निकल लिए
" तुम न देखोगे कल की बहारे तो क्या 
 अपनी पीढ़ियों के लिए तो हम कमा जायेंगे |

''ऐ वतन ऐ वतन हम को तेरी कसम  |
 तुझे बेच के ही पूरा अब दम लेंगे हम   |

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*************राजेश कुमार "आतिश"**************